प्रेक्टिकल 1

विभिनन कीटो व रोगों के लिए बिज उपचार

बीज उपचार के फ़ायदे

  • मिट्टी और बीज के रोगजनकों/ कीटों के विरुद्ध अंकुरित होने वाले बीजों तथा अंकुरों की सुरक्षा करता है।
  • बीज अंकुरण में वृद्धि।
  • प्रारंभिक और समान रूप से खड़ा होना व विकास।
  • फली की फसल में नॉड्यूलेशन बढ़ाता है।
  • मिट्टी और पत्ते के अनुप्रयोग से बेहतर।
  • प्रतिकूल परिस्थितियों (कम/उच्च नमी) में भी एक समान फसल।


बीज उपचार की प्रक्रिया

बीज उपचार एक शब्द है जो उत्पादों और प्रक्रियाओं दोनों का वर्णन करता है। बीज उपचार निम्न में से किसी एक प्रकार से किया जा सकता है।

  1. बीज ड्रेसिंग: यह बीज उपचार का सबसे आम तरीका है। बीज या तो एक सूखे मिश्रण या लुग्दी अथवा तरल घोल से गीले रूप में उपचारित किया जाता है। ड्रेसिंग, खेत और उद्योगों दोनों में लागू की जा सकती है। कम लागत के मिट्टी के बर्तन बीज के कीटनाशक के साथ मिश्रण के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है या बीजों को एक पॉलिथीन शीट पर फैलाकर आवश्यक मात्रा में उसपर रसायन छिड़क कर किसानों द्वारा यांत्रिक रूप से मिलाया जा सकता है।
  2. बीज कोटिंग (लेप): बीज पर अच्छे तरीके से चिपकने के लिए मिश्रण के साथ एक विशेष बाइंडर का प्रयोग किया जाता है। कोटिंग के लिए उद्योग द्वारा उन्नत उपचार प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है।
  3. बीज पैलेटिंग: यह सर्वाधिक परिष्कृत बीज उपचार प्रौद्योगिकी है, जिससे बीज की पैलेटिबिलिटी तथा हैंडलिंग बेहतर करने के लिए बीज का शारीरिक आकार बदला जाता है। पैलेटिंग के लिए विशेष अनुप्रयोग मशीनरी तथा तकनीकों की आवश्यकता होती है और यह सबसे महंगा अनुप्रयोग है।

प्रेक्टिकल 2

बिज प्रसुप्ति तोड़ने के लिए बिज उपचार

1 ) बिज आवरण = यह वह उपचार हे जिसके बिज आवरण को तोडा या कमजोर किया जाता हे

2) रसायनों का प्रियोग = बीजो का उपचार रसायनों तथा हमोनो जेसे जिबरेलिक एसिड थयोरिया , पोटासियम से करे

3 ) दबाव डालना = दबाव से बिज आवरण नाजुक हो जाता हे जिससे पानी की पारगम्यता बड जाता हे इस तरह यह बिज की को विखडित करता हे

पर्यावरण कारणों एव बीजो के गुणों पर विभिन प्रकार के बीजो की बिज उपचार किये जाते हे

प्रेक्टिकल 3

जेविक रासायनिको तथा जेव उर्वरको की पहचान व उपयोग

प्रमुख रासायनिक उर्वरक

यूरिया

पहचान विधि :

  • सफेद चमकदार, लगभग समान आकार के गोल दाने।
  • पानी में पूर्णतया घुल जाना तथा घोल छूने पर शीतल अनुभूति।
  • गर्म तवे पर रखने से पिघल जाता है और आंच तेज करने पर कोई अवशेष नही बचता।

डाई अमोनियम फास्फेट (डी.ए.पी.)

पहचान विधि :

  • सख्त, दानेदार, भूरा, काला, बादामी रंग नाखूनों से आसानी से नहीं छूटता।
  • डी.ए.पी. के कुछ दानों को लेकर तम्बाकू की तरह उसमें चूना मिलाकर मलने पर तीक्ष्ण गन्ध निकलती है, जिसे सूंघना असह्य हो जाता है।
  • तवे पर धीमी आंच में गर्म करने पर दाने फूल जाते है।

सुपर फास्फेट

पहचान विधि :

  • यह सख्त दानेदार, भूरा काला बादामी रंगों से युक्त तथा नाखूनों से आसानी से न टूटने वाला उर्वरक है। यह चूर्ण के रूप में भी उपलब्ध होता है। इस दानेदार उर्वरक की मिलावट बहुधा डी.ए.पी. व एन.पी.के. मिक्चर उर्वरकों के साथ की जाने की सम्भावना बनी रहती है।

जिंक सल्फेट

पहचान विधि :

  • जिंक सल्फेट में मैंग्नीशिम सल्फेट प्रमुख मिलावटी रसायन है। भौतिक रूप से समानता के कारण नकली असली की पहचान कठिन होती है।
  • डी.ए.पी. के घोल में जिंक सल्फेट के घोल को मिलाने पर थक्केदार घना अवक्षेप बन जाता है। मैग्नीशियम सल्फेट के साथ ऐसा नहीं होता।
  • जिंक सल्फेट के घोल में पतला कास्टिक का घोल मिलाने पर सफेद, मटमैला मांड़ जैसा अवक्षेप बनता है, जिसमें गाढ़ा कास्टिक का घोल मिलाने पर अवक्षेप पूर्णतया घुल जाता है। यदि जिंक सल्फेट की जगह पर मैंग्नीशिम सल्फेट है तो अवक्षेप नहीं घुलेगा।

पोटाश खाद

पहचान विधि :

  • सफेद कणाकार, पिसे नमक तथा लाल मिर्च जैसा मिश्रण।
  • ये कण नम करने पर आपस में चिपकते नहीं।
  • पानी में घोलने पर खाद का लाल भाग पानी में ऊपर तैरता है।

कीटनाशक रासायनिक या जैविक पदार्थों का ऐसा मिश्रण होता है जो कीड़े मकोड़ों से होनेवाले दुष्प्रभावों को कम करने, उन्हें मारने या उनसे बचाने के लिए किया जाता है।

फसल के लक्ष्यित शत्रु के आधार पर

कीटनाशकलक्ष्य
एल्गीनाशी (Algicides)एल्गी
पक्षीनाशीपक्षी
जीवाणुबैक्टीरिया
फफूँदनाशीफफूँद

कीटनाशक रासायनिक या जैविक पदार्थों का ऐसा मिश्रण होता है जो कीड़े मकोड़ों से होनेवाले दुष्प्रभावों को कम करने, उन्हें मारने या उनसे बचाने के लिए किया जाता हे

उर्वरक पौध की वृद्धि में मदद करते हैं जबकि कीटनाशक कीटों से रक्षा के उपाय के रूप में कार्य करते हैं। कीटनाशक कीट की क्षति को रोकने, नष्‍ट करने, दूर भगाने अथवा कम करने वाला पदार्थ अथवा पदार्थों का मिश्रण होता है। कीटनाशक रसायनिक पदार्थ (फासफैमीडोन, लिंडेन, फ्लोरोपाइरीफोस, हेप्‍टाक्‍लोर तथा मैलेथियान आदि) अथवा वाइरस, बैक्‍टीरिया, कीट भगाने वाले खर-पतवार तथा कीट खाने वाले कीटों, मछली, पछी तथा स्‍तनधारी जैसे जीव होते हैं।

प्रेक्तिकल 4

जैव उर्वरक या जैव उर्वरक उपचारित बीजों को किसी भी रसायन या रासायनिक खाद के साथ न मिलायें। यदि बीजों पर फफूंदी नाशी का प्रयोग करना हो तो कार्बेन्डाजिम का प्रयोग करें, यदि तांबा युक्त रसायन का प्रयोग करना हो तो बीजों को पहले फफूंदी नाशी से उपचारित करें तथा फिर जैव उर्वरक की दुगुनी मात्रा से उपचारित करें।

जैव उर्वरक के लाभ 

  • जैव उर्वरक बहुत सस्ते होते हैं । …
  • इनके उपयोग से मृदा की भौतिक संरचना एवं इसके रासायनिक गुणों में ( जल धारण क्षमता, आयन विनिमय तथा बफर क्षमता आदि ) में पर्याप्त सुधार होता है ।

प्रेक्टिकल 4

मैदानी फसको के लिए सिचाई विधियों की रूपरेखा तथा प्रारूप

बीजोपचार

  • परिचय
  • परिचय फसलों के रोग मुख्यतः बीज, मिट्टी तथा हवा के माध्यम से फैलते हैंl फसलों को बीज-जनित एवं मृदा-जनित रोगों से बचाने के लिए बीजों को बोने से पहले कुछ रासायनिक दवाओं एवं पोषक तत्वों की उपलब्धता बढाने के लिए कुछ जैव उर्वरकों से उपचारित किया जाता है।

बीज के प्रकार

(1) न्यूक्लियस बीज (2) प्रजनक बीज (3) आधारीय बीज (4) प्रमाणित बीज (5) सत्यापित बीज| बीज उपचार आवश्यक क्यों- बीज उपचार आवश्यक इसलिए है, की प्रारंभ में ही बीज जनित रोगों और कीटों का प्रभाव न्यून या रोकने हेतु बीजोपचार आवश्यक है, क्योंकि यह उनसे होने वाले नुकासन को घटाता है, अन्यथा पौधों के वृद्धि के बाद इनको रोकने के लिए अधिक मूल्य खर्च करना पड़ता है और क्षति भी अधिक होती है|बीजों में अंदर और बाहर रोगों के रोगाणु सुशुप्ता अवस्था में (बीज जनित रोग), मिट्टी में (मिट्टी जनित रोग) और हवा में (वायु जनित रोग) मौजूद रहते हैं| ये अनुकूल वातावरण के मिलने पर उत्पन्न होकर पौधों पर रोग के लक्षण के रूप में प्रकट होते हैं|

प्रेक्टिकल 5

सिंचाई की विधियाँ

  • कटवाँ या तोड़ विधि यह विधि निचली भूमि में धान के खेतो की सिंचाई में प्रयुक्त होती है जबकि इसका प्रयोग कुछ और फसलों में भी किया जाता है। …
  • थाला विधि …
  • नकबार या क्यारी विधि …
  • बौछारी सिंचाई …
  • नदी …
  • नहर …
  • जलाशय

सिंचाई क्या है इसके प्रमुख उद्देश्य लिखिए?सिंचाई (sichai) करने से फसलों की वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है तथा कृषि उत्पादन बढ़ जाता है जो किसी भी क्षेत्र की सम्पन्नता का प्रतीक माना जाता है । पौधों को वृद्धि एवं विकास के लिए वर्षा जल के अतिरिक्त भी जल की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति के लिए कृत्रिम रूप से सिंचाई (Irrigation in hindi) की जाती हे

प्रेक्टिकल 6

टपक एव फवारा सिंचाई विधियों की रूपरेखा तथा प्रारूप

खेत में टपक विधि का इस्तेमाल करने के लिए पौधों की दूरी निर्धारित होना आवश्यक है। ऊपर से लगे पाइप में सुराख के जरिए पानी की बूंद बराबर पौधों पर गिरती रहती है। इसके लिए खेत में एक बड़ी टंकी लगाई जाती है, जबकि फव्वारा विधि में मोटर से पानी सप्लाई के जरिए पौधों को फुहारे दिए जाते हैं।

टपक (ड्रिप)

सिंचाई अगर किसान खेत में साधारण सिंचाई के बजाय ड्रिप सिंचाई विधि का प्रयोग करे तो तीन गुना ज्यादा क्षेत्र में उतने ही पानी में सिंचाई कर सकते हैं। ड्रिप सिंचाई का प्रयोग सभी फसलों की सिंचाई में करते हैं, लेकिन बागवानी में इसका प्रयोग ज्यादा अच्छे से होता है। बागवानी में जैसे केला, पपीता, नींबू जैसी फसलों में सफलतापूर्वक करते हैं। बागवानी की तरह ही ड्रिप सिंचाई विधि का प्रयोग गन्ना और सब्जियों में भी कर सकते हैं। ड्रिप सिंचाई से लाभ टपक सिंचाई में पेड़ पौधों को नियमित जरुरी मात्रा में पानी मिलता रहता है ड्रिप सिंचाई विधि से उत्पादकता में 20 से 30 प्रतिशत तक अधिक लाभ मिलता है। इस विधि से 60 से 70 प्रतिशत तक पानी की बचत होती है। इस विधि से ऊंची-नीची जमीन पर सामान्य रुप से पानी पहुंचता है। इसमें सभी पोषक तत्व सीधे पानी से पौधों के जड़ों तक पहुंचाया जाता है तो अतिरिक्त पोषक तत्व बेकार नहीं जाता, जिससे उत्पादकता में वृद्धि होती है। इस विधि में पानी सीधा जड़ों तक पहुंचाया जाता है और आस-पास की जमीन सूखी रहती है, जिससे खरपतवार भी नहीं पनपते हैं। ड्रिप सिंचाई में जड़ को छोड़कर सभी भाग सूखा रहता है, जिससे खरपतवार नहीं उगते हैं, निराई-गुड़ाई का खर्च भी बच जाता है।

फव्वारा (स्प्रिंकल)

सिंचाई स्प्रिंकल विधि से सिंचाई में पानी को छिड़काव के रूप में किया जाता है, जिससे पानी पौधों पर बारिश की बूंदों की तरह पड़ता है। पानी की बचत और उत्पादकता के हिसाब से स्प्रिंकल विधि ज्यादा उपयोगी मानी जाती है। ये सिंचाई तकनीक ज्यादा लाभदायक साबित हो रहा है। चना, सरसो और दलहनी फसलों के लिए ये विधि उपयोगी मानी जाती है। सिंचाई के दौरान ही पानी में दवा मिला दी जाती है, जो पौधे की जड़ में जाती है। ऐसा करने पर पानी की बर्बादी नहीं होती। विधि से लाभ इस विधि से पानी वर्षा की बूदों की तरह फसलों पर पड़ता है, जिससे खेत में जलभराव नहीं होता है। जिस जगह में खेत ऊंचे-नीचे होते हैं वहां पर सिंचाई कर सकते हैं। इस विधि से सिंचाई करने पर मिट्टी में नमी बनी रहती है और सभी पौधों को एक समान पानी मिलता रहता है। इसमें भी सिंचाई के साथ ही उर्वरक, कीटनाशक आदि को छिड़काव हो जाता है। पानी की कमीं वाले क्षेत्रों में विधि लाभदायक साबित हो रही है।

प्रेक्टिकल 7

सोयाबीन की खेती के लिए उचित जल निकास वाली दोमट भूमि सबसे अच्छी रहती है। सोयाबीन की बुआई मैदानी एवं मध्य क्षेत्रों में मध्य जून से मध्य जुलाई तक, दक्षिणी क्षेत्रों में मध्य जून से जुलाई अंत तक तथा उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में मध्य जून से मध्य जुलाई तक पूरी कर लें।

सोयाबीन की खेती के लिए उचित जल निकास वाली दोमट भूमि सबसे अच्छी रहती है। सोयाबीन की बुआई मैदानी एवं मध्य क्षेत्रों में मध्य जून से मध्य जुलाई तक, दक्षिणी क्षेत्रों में मध्य जून से जुलाई अंत तक तथा उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में मध्य जून से मध्य जुलाई तक पूरी कर लें।

सोयाबीन की बुवाई:

भारत में सोयाबीन एक खरीफ फ़सल हैं इसकी बुआई मानसून के आते ही शुरू हो जाती हैं. सोयाबीन की बुवाई हेतु निम्न बिंदु दिए हैं –

  • बुवाई का समय: सोयाबीन की बुवाई जून और जुलाई के पहले सप्ताह तक हो जानी चाहिए.
  • मिट्टी की नमी: मिट्टी में 10 सेमी तक नमी बुवाई के लिए पर्याप्त हैं.
  • बुवाई की विधि: सोयाबीन की सीडड्रिल से बुवाई करना चाहियें और प्रति एकड़ 25 से 30 किलो बीज की बुवाई दर होना चाहिए.
  • पंक्तियों की दूरी: दो पंक्तियों के बीच की दूरी 45 से 50 सेमी और बीज की दूरी 4 से 7 सेमी के बीच होना चाहिए.
  • बुवाई की गहराई: बीज को 2.5 सेमी से 5 सेमी की गहराई में बोना चाहिए.
  • बीज उपचार: कार्बेन्डाजिम 50% WP या किसी अच्छे फंगीसाइड द्वारा सोयाबीन के बीज को उपचारित करना चाहिए.

उर्वरक:

  • गोबर खाद: गर्मी के समय में खेत में गोबर खाद डालना चाहिए, यह सोयाबीन के लिए बहुत फायदेमंद हैं.
  • नाइट्रोजन: सोयाबीन वैसे तो वातावरण से नाइट्रोजन लेता हैं लेकिन यह काफी नहीं हैं इसलिए 10 से 15 किलो नाइट्रोजन खाद प्रति एकड़ डालें.
  • फास्फोरस: 32 किलो फास्फोरस सोयाबीन की खेती के लिए पर्याप्त हैं.
  • पोटाश: अगर मिट्टी में पोटाश की कमी हैं तब ही पोटाश खाद डालें.

सिंचाई:

सोयाबीन वैसे तो खरीफ फसल हैं इसलिए यह इसकी सिंचाई बारिश के पानी से ही पर्याप्त मात्रा में हो जाती हैं, अगर इसे आप गर्मी के मौसम में लगाते हो तो इसे 12 से 15 दिन के अंतराल पर 5-6 पानी दिए जाने चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण:

सोयाबीन के उत्पादन में कमी होने का एक बड़ा कारण खरपतवार भी हैं, यह इसकी वृद्धि को रोक देता हैं जिससे की उत्पादन में कमी आती हैं.

सोयाबीन की फसल में होने वाले खरपतवार निम्न हैं-

  • चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार
  • सकरी पत्ती वाले खरपतवार
  • मोथा परिवार के खरपतवार

सोयाबीन में खरपतवार रोकने के उपाय:

  • बैल चलित कोलपा या डौरा चलाना
  • निंदाई, गुड़ाई करना
  • खरपतवार नाशक दवाइयों का स्प्रे करना
  • बैल चलित कोलपा या डौरा फसल के 15 से 20 दिन की होने पर चलाएं.
  • निंदाई गुड़ाई क्रमश: 15 से 20 दिन के बाद तथा 35 से 40 दिन के बाद करें.

बैल चलित कोलपा या डौरा इस्तेमाल करना स्तिथि पर निर्भर करता हैं और निंदाई गुड़ाई करना आज के समय के लिए महंगा हो गया हैं ऐसे में बाजार में बहुत सारी खरपतवार नियंत्रक दवाइयाँ उपलब्ध हैं

सोयाबीन के लिए खरपतवार नाशक दवाइयाँ:

आइए जानते हैं कि सोयाबीन के लिए कौनसी खरपतवार नाशक दवाइयाँ उपलब्ध हैं-

बाजार में सोयाबीन के लिए खरपतवार नाशक दवाइयाँ निम्न नाम से उपलब्ध हैं.

नामखरपतवार नाशक दवाईनिर्माता
परस्युट (Pursuit )Imazethapyr 10% SLBASF
वीडब्लॉक (Weedblock)Imazethapyr 10% SLअदामा
पेट्रीयॉट (Patriot)Imazethapyr 10% SLविलवूड
गार्ड (Guard)Imazethapyr 10% SLक्रिस्टल
लगाम (Lagaam)Imazethapyr 10% SLUPL
सेटरिक्स (Satrix)Imazethapyr 10% SLअतुल
फ़्यूजीफ्लैक्स (FUSIFLEX )Fluazifop-p-butyl 13.4% ECसिंजेन्टा
टरगा सुपर ( Targa Super)Quizalofop Ethyl 5% ECधानुका
आइरिस (Iris)Sodium Acifluorfen 16.5% + Clodinafop propargyl 8% ECUPL
पटेला (Patela)Sodium Acifluorfen 16.5% + Clodinafop-Propargyl 8% ECSWAL
व्हीप सुपरFenoxaprop-p-ethyl 9 ECबायर

सोयाबीन में होने वाले रोग और उनसे बचाव:

बारिश अधिक या कम होने से सोयाबीन में अलग अलग तरह के रोग लग सकते हैं.

सोयाबीन के प्रमुख रोग इस तरह से हैं-

  • पत्तियों का धब्बा रोग (Brown Spot Disease)
  • पीला मोजेक रोग (Yellow Mosaic Disease)

पत्तियों का धब्बा रोग:

सोयाबीन की पत्तियों मे हल्के लाल, कत्थाई रंग के धब्बे दिखाई देते हैं और कभी कभी यह तने पर भी दिखाई देते हैं, इसका प्रकोप अधिक होने पर पत्तियां समय से पहले ही टूट जाती हैं.

Soybean Ke Rog

सोयाबीन की खेती में कीट व उनका नियंत्रण:

सोयाबीन में कीटों का प्रकोप अक्सर देखा जाता हैं. जानते हैं कि कौनसे कीट सोयाबीन की खेती को प्रभावित करते हैं और उनसे बचाव कैसे किया जाएं.

सफेद मक्खी (White Fly):

सफेद मक्खी से बचाव के लिए , थाइमैथोक्सम 40 ग्राम या ट्राइज़ोफोस 300 मि.ली की स्प्रे प्रति एकड़ में करें. यदि जरूरत पड़े तो पहली स्प्रे के 10 दिनों के बाद दूसरी स्प्रे करें.

बालों वाली सुंडी (Hairy Caterpillar):

बालों वाली सुंडी का हमला ज्यादा हो तो, क्विनलफॉस 300 मि.ली. या डाइक्लोरवास 200 मि.ली की प्रति एकड़ में स्प्रे करें.

तंबाकू सुंडी (Tobacco caterpillar):

यदि इस कीट का हमला दिखाई दे तो एसीफेट 57 एस पी 800 ग्राम या क्लोरपाइरीफॉस 20 ई सी को 1.5 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें.

काली भुंडी (Blister beetle):

काली भुंडी से बचाव के लिए इंडोएक्साकार्ब 14.5 एस सी 200 मि.ली. या एसीफेट 75 एस सी 800 ग्राम की प्रति एकड़ में स्प्रे करें.

सोयाबीन के लिए कीटनाशक दवाइयाँ:

बाजार में सोयाबीन की खेती के लिए सामान्य कीटनाशक दवाइयाँ निम्न नाम से उपलब्ध हैं.

  • ट्राइजोफ़ास – Triazophos 40% EC
  • प्रोफेनोफ़ास – Profenofos 40% + Cypermethrin 4% E.C.
  • मोनोक्रोटोफ़ास- Monocrotophos 36% SL
  • क्विनालफॉस Quinalphos 25% EC

सोयाबीन की कटाई:

सभी किस्में लगभग 90 से 120 दिनों में आ जाती हैं, जब सोयाबीन के पत्ते सुखकर गिरने लगते हैं और फलियाँ भी सुख जाती हैं तो यह समय सोयाबीन की कटाई का होता हैं.

प्रेक्टिकल 8

बागवानी फसल फ्र्चबिन की की खेती

बुवाई की विधि

बीज की बुवाई समतल खेत में या उठी हुई मेड़ों या क्यारियों में की जाती है| उठी हुई मेड़ों या क्यारियों में बुवाई करना पौधों की अच्छी वृद्धि व अधिक उत्पादन के लिए उपयुक्त पाया गया है| झाड़ीनुमा (बौनी) किस्मों के लिए कतार से कतार की दूरी 45 से 60 सेंटीमीटर तथा कतार में पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 सेंटीमीटर रखते हैं| लता वाली किस्मों के लिए कतार से कतार की दूरी 75 से 100 सेंटीमीटर तथा कतार में पौध से पौध की दूरी 25 से 30 सेंटीमीटर रखते है|

खाद और उर्वरक

अन्य दलहनी सब्जियों की आपेक्षा फ्रेंचबीन की जड़ों में वायुमण्डल से नत्रजन एकत्रित करने वाली ग्रन्थियों का निर्माण बहुत कम होता है| जिसके कारण इस फसल को खाद और उर्वरक की आवश्यकता अधिक होती है| अच्छे उत्पादन के लिए 20 से 25 टन सड़ी गोबर की खाद खेत की तैयारी के समय मिटटी में अच्छी तरह मिला देते हैं|

इसके अतिरिक्त 80 से 120 किलोग्राम नाइट्रोजन 50 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देते हैं| नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई से पहले या बुवाई के समय आधारीय खुराक के रूप में देते हैं| नाइट्रोजन की शेष मात्रा दो बराबर भागों में बाँटकर बुवाई के लगभग 20 से 25 दिन व 35 से 45 दिन बाद टाप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिए|

पौधों को सहारा देना

फ्रेंचबीन की लता वाली किस्मों को सहारा देना आवश्यक है| सहारा न देने की अवस्था में पौधे भूमि पर ही फैल जाते हैं और उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है| जिसके कारण गुणवत्तायुक्त उत्पादन में भारी गिरावट आ जाती है| सहारा देने के लिए पौधों की कतारों के समानान्तर 2 से 3 मीटर लम्बे बाँस या लकड़ी या आयरन के खम्भों को 5 से 7 मीटर की दूरी पर गाड़ देते है| इन पर रस्सी या लोहे के तार खींचकर ट्रेलिस बनाकर लताओं को चढ़ा देते है| पौधों की बढ़वार के अनुसार रस्सी या तार की कतारों की संख्या 30 से 45 सेंटीमीटर के अन्तराल पर बढ़ाते जाते है|

सिंचाई प्रबंधन

फ्रेंचबीन (फ्रांसबीन) की फसल मिटटी की नमी के प्रति अति संवेदनशील होती है| अतः खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए| अपर्याप्त नमी होने पर पौधे मुरझा जाते हैं| जिसके कारण उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ता है| इसके लिए मिटटी की नमी को ध्यान में रखते हुए नियमित अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए|

खरपतवार नियंत्रण

फ्रेंचबीन (फ्रांसबीन) फसल की प्रारम्भिक अवस्था में खेत को खरपतवार मुक्त रखने के लिए एक से दो निराई-गुड़ाई पर्याप्त होती है| निराई-गुड़ाई अधिक गहराई तक नहीं करनी चाहिए| वैसे खरपतवार नियंत्रण के लिए पूर्व निर्गमन खरपतवारनाशी रसायनों जैसे पेन्डामेथालीन 3.5 लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के 48 घंटे के अन्दर छिड़काव करें| इससे 40 से 45 दिनों तक मौसमी खरपतवारों का नियंत्रण हो जाता है| इसके बाद यदि आवश्यक हो तो एक निराई कर देनी चाहिए|

कीट एवं रोग नियंत्रण

फ्रेंचबीन की फसल से अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए इस फसल की अन्य कृषि क्रियाओं के साथ-साथ कीट एवं रोगों की रोकथाम भी आवश्यक है| इस फसल को हानी पहुँचाने वाले अनेक कीट और रोग है, लेकिन फ्रेंचबीन की फसल में आर्थिक स्तर से अधिक नुकसान पहुँचाने वाले कुछ प्रमुख कीट एवं रोगों की पहचान

फलियों की तुड़ाई

फलियों की तुड़ाई हमेशा मुलायम अवस्था में करनी चाहिए| देर से तुड़ाई करने पर फलियों में सख्त रेशे बन जाते है| जिससे इनका बाजार भाव घट जाता है| बौनी (झाड़ीनुमा) किस्मों की 3 से 4 तुड़ाई मिल जाती है| जबकि लता (बेल) वाली किस्मों से लम्बे समय तक फलत मिलती रहती है| यदि फ्रेंचबीन की खेती सूखे दानों के लिए की गयी हो तो फलियों की तुड़ाई सूखी अवस्था में जब वे चटकने के करीब हो करनी चाहिए|

पैदावार

फ्रेंचबीन (फ्रांसबीन) की फसल से पैदावार किस्म चयन, खाद और उर्वरक की मात्रा, फसल देखभाल और अन्य कृषि परिस्थितियों पर निर्भर करती है| लेकिन सामान्यत: उपरोक्त वैज्ञानिक विधि से खेती करने पर फ्रेंचबीन की झाड़ीनुमा (बौनी) किस्मों से हरी फलियों की उपज 80 से 230 कुन्तल व लता वाली (बेल) किस्मों की 80 से 250 कुन्तल प्रति हेक्टेयर होती है| सूखे दानों की औसत उपज 10 से 21 कुन्तल प्रति हेक्टेयर होती है|

तुड़ाई उपरान्त प्रबंधन

हरी फलियों को तुड़ाई के पश्चात् ठंडे छायादार स्थानों पर रखना चाहिए| क्षतिग्रस्त, सड़ी-गली, कीड़ों मकोड़ों से प्रभावित व विकृति फलियों को छाँटकर निकाल देते है| जूट के बैग में भरकर फलियों को यथाशीघ्र बाजार में विक्रय हेतु भेज देते है| फलियों को ताजा बनाये रखने के लिए बीच-बीच में पानी का हल्का छिड़काव कर सकते हैं| हरी मुलायम फलियों को 4 से 5 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान व 95 प्रतिशत सापेक्षित आर्द्रता पर 6 से 8 दिनों तक भण्डारित कर सकते हैं|

प्रेक्टिकल 9

खरपतवार नियंत्रण की विधियों का अभ्यास

खरपतवार नियंत्रण

यांत्रिक विधियाँ

  • (१) हाथों से खरपतवार निकालना- हाथों से खींचकर खरपतवारों को निकालना या खुरपी, हँसिया, कुदाल आदि से निकालना
  • (२) मशीन से खरपतवार निकालना – जैसे रोटरी वीदर से खरपतवार निकालना

सस्य क्रियाएं

(1)फसलों का चुनाव– खरपतवार नियंत्रण हेतु ऐसी फसली का चुनाव करना चाहिए जिसमें विभिन्न गुणों का समावेश हो । फसल का बीज सस्ता होना चाहिए , कम समय में तेजी से वृद्धि करने वाली होनी चाहिए व फसल के पौधों में कीटों व बीमारियों को सहन करने की क्षमता होनी चाहिए । फसलों की जड़े गहरी व फैलने वाली होती चाहिए । फसल को कम से कम पोषक तत्वों की आवश्यकता होनी चाहिए । फसलों की उपरोक्त विशेषताओं को ध्यान में रखकर फसलों का चुनाव करना चाहिए ।

(2)भूपरिष्करण क्रियाएँ – खरपतवारों पर नियन्त्रण के लिए गहरी व बार – बार कृषि क्रियाएँ नहीं करनी चाहिए । यद्यपि फसलों की वृद्धि के लिए गहरी य बार – बार जुताई लाभदायक होती है परंतु गहरी और बार – बार जुताई करने से मिट्टी में मिले हुए खरपतवारों के बीज खेत की ऊपरी सतह पर आकर अनुकूल परिस्थितियों में बार – बार अंकुरित होते रहते हैं ।

(3)कार्बनिक खादों का प्रयोग – कार्बनिक खाद सड़ने और गलने के पश्चात् कार्बनिक अम्ल का निस्तारण करते हैं । यह अम्ल खरपतवारों की वृद्धि को शिथिल कर देता है । सामान्य परिस्थितियों में कार्बनिक खादों के प्रयोग से भूमि में उगने वाली फसलों के लिए पर्याप्त वायु संचार , सुधरी हुई भूमि संरचना व अनुकूल नमी बनी रहती है ।

रासायनिक विधियाँ

विभिन्न रसायनों के द्वारा खरपतवार की रोकथाम करना आधुनिक कृषि के लिए एक महान उपलब्धि है,रसायनों से खरपतवार के नियंत्रण के लिए इसी शब्द सी शताब्दी के प्रारंभ में ही प्रयोग विभिन्न देशों में प्रारंभ हुए। देर से जिनको खरपतवार को नष्ट करने की उसके लिए काम आते हैं साथ ना सीखे जाते हैं शाकनाशी कहलाता हैं। 2,4d बा एमसीपीए नामक शाकनाशी रसायन की खोज सन 1940 में प्रारंभ में शाकनाशी रसायनों का प्रयोग अधिकतर खरपतवार ओं को नष्ट करने के लिए प्रारंभ हुआ।

प्रेक्टिकल 10

विभिन रोगों से प्रभावित फसलो के नमूनों को एकत्र करना व उनकी पहचान करना

फसलरोग
जौआवृत्त कंड (कवर्ड स्मट) अनावृत कंड (लूज स्मट)
मक्काहेल्मिंथोस्पोरियम ब्लाइट
शीथ ब्लाइट
मडुआझुलसा

प्रेक्टिकल 11

फसलो के लिए नासको कीटो को एकत्र करना व पहचान करना

फसलों में लगने वाले प्रमुख कीट रोग

फसलों में लगने वाले रोग पौधों को कई तरह से नुक्सान पहुँचाते हैं. पौधों में लगने वाले ये रोग जीवाणु, फफूंद, बीज, मृदा और कीट जनित होते हैं. जो पौधे को जमीन के बाहर और भीतर दोनों जगह ही नुक्सान पहुँचाते हैं. रोगग्रस्त पौधों का विकास रुक जाता है. और रोग बढ़ने पर पौधे नष्ट भी हो जाते है. जिससे किसान भाइयों को उनकी फसल से उचित लाभ नही मिल पाता है. आज हम आपकों फसलों में लगने वाले कुछ प्रमुख कीट रोगों के लिए आवश्यक जैविक कीट नाशकों के बारें में बताने वाले हैं.

इन जैविक कीटनाशकों को किसान भाई अपने घर पर आसानी से तैयार कर सकता है. और इन्हें तैयार करने के लिए किसान भाइयों को रूपये खर्च करने की भी जरूरत नही होती. वर्तमान में सरकार द्वारा भी जैविक खेती की तरफ ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. जैविक खेती के लिए सरकार की तरफ से कई योजनाएँ भी चलाई जा रही हैं.

फसलों में लगने वाले कुछ प्रमुख कीट रोग और उनके जैविक उपचार

मिली बग

मिली बग रोग का प्रभाव पौधों पर बारिश के मौसम में अधिक देखने को मिलता है. इस रोग के कीट सफ़ेद रूई के जैसे दिखाई देते हैं. जो पौधे की पत्ती, फल, तने और फूलों की निचली सतह पर पाए जाते हैं. इस रोग के कीट पौधों की पत्तियों का रस चूसकर पौधों का विकास रोक देते हैं. जिससे पौधे की पत्तियां समय से पहले पीली होकर गिर जाती है, या सिकुड़ने लगती है.

रोकथाम – इस रोग की जैविक तरीके से रोकथाम कई तरह से की जा सकती है.

  1. नीम के तेल को पानी में मिलाकर पौधों पर 10 दिन के अंतराल में दो बार छिडकाव कर दें.
  2. बारिश के वक्त खेत में पानी हल्की मात्रा में देना चाहिए.
  3. इसकी रोकथाम के लिए पौधों पर सर्फ और मिट्टी तेल के घोल का छिडकाव भी लाभदायक होता है.
  4. नीम की पत्ती, लहसुन, हरी मिर्च और गुड को 1:1:1:3 के अनुपात में लेकर उसमें आधा लीटर पानी मिलाकर तीन महीने के लिए रख दें. उसके बाद प्राप्त घोल की 10 मिलीलीटर मात्र को 15 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर 10 दिन के अंतराल में दो से तीन बार छिडकाव करें .

सफ़ेद मक्खी

सफ़ेद मक्खी का रोग लगभग सभी तरह की चौड़ी पत्तियों वाली फसलों ( सब्जी, कपास, अनाज ) पर देखने को मिलता है. इस रोग के कीट सफ़ेद रंग के दिखाई देते हैं. जिनका आकार छोटा होता है. इस रोग के कीट पौधे की पत्तियों की निचली सतह पर देखने को मिलते है. जो पौधे की पत्तियों का रस चूसकर पौधों को नुक्सान पहुँचाते है. इन कीटों के रस चूसने की वजह से पौधों की पत्तियां पीली की पड़ जाती है. और पौधों का विकास रुक जाता हैं.

रोकथाम – इस रोग की रोकथाम के लिए कई तरह के जैविक तरीके किसान भाई अपना सकता है.

  1. यलो स्टिकी ट्रेप को खेत में लगा दें. यलो स्टिकी ट्रेप एक चिपचिपी टेप होती है. जिस पर सफ़ेद मक्खी के कीट आकर्षित होते हैं. और उससे चिपककर नष्ट हो जाते हैं.
  2. नीम के तेल की उचित मात्रा को पानी में मिलकर उसका छिडकाव पौधों पर सप्ताह में एक बार करना चाहिए.
  3. नीम की पत्ती, लहसुन, हरी मिर्च और गुड को 1:1:1:3 के अनुपात में लेकर उसमें आधा लीटर पानी मिलाकर तीन महीने के लिए रख दें. उसके बाद प्राप्त घोल की 10 मिलीलीटर मात्र को 15 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर 10 दिन के अंतराल में तीन बार छिडकाव करें.

सूत्रकृमि

सूत्रकृमि, गोल कृमि या नेमैटोड सभी एक ही कीट के नाम है. इस रोग के कीट पौधों को जमीन के अंदर रहकर नुक्सान पहुँचाते हैं. इस रोग के कीट का लार्वा पौधे की जड़ों को खाकर पौधों को नष्ट कर देता है. जिससे फसल को काफी ज्यादा नुक्सान पहुँचता हैं.

रोकथाम

  1. इस रोग की रोकथाम के लिए गर्मियों के मौसम में खेत की गहरी जुताई कर कुछ दिन के लिए खेत को खुला छोड़ दें.
  2. फसल को रोगग्रस्त होने से बचाने के लिए खेत में फसल चक्र को अपनाएं.
  3. खेत में जलभराव अधिक ना होने दें.
  4. नीम की खली का छिडकाव खेत की तैयारी के दौरान खेत में करना चाहिए.

दीमक

दीमक का रोग पौधों को जमीन के अंदर और बाहर दोनों तरह से नुक्सान पहुँचाता हैं. इस रोग के कीट जमीन में पौधे की जड़ को काटकर नुक्सान पहुँचाते हैं, तो जमीन के बाहर जमीन की सतह से पौधे के तने को काटकर उन्हें नष्ट कर देते हैं. इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधा मुरझा जाता है. और कुछ दिन बाद पौधा पूरी तरह से सुख जाता है.

रोकथाम – दीमक की रोकथाम के लिए किसान भाई कई जैविक तरीकों को अपना सकते हैं

  1. दीमक के प्रकोप वाले खेतों में गोबर की खाद नही डालनी चाहिए.
  2. फसल रोपाई के बाद खेत में खाली मटकों में मुख से 10 सेंटीमीटर नीचे छिद्र बना लें. उसके बाद मटकों में पानी भरकर उसमें मक्के के भुट्टों को डाल दें. और खेत में 60 से 80 फिट की दूरी में दबा दें. जब उनमें दीमक के कीट आ जाए तब उन्हें खेत से बाहर ले जाकर फेंक दें.
  3. खेत की जुताई के वक्त नीम या करंजी की खल का छिडकाव खेत में कर दें.

हरा तेला

हरा तेला का रोग ज्यादातर गन्ना, चावल और कपास जैसी और भी कई फसलों में देखा जाता है. इस रोग के कीट पौधे की पत्तियों पर अपने अंडे देते हैं. जिनका लार्वा पौधे को काफी नुक्सान पहुँचाता हैं. इस रोग के कीट हरे रंग के होते हैं. जिनके पीछे काला धब्बा दिखाई देता हैं. इस रोग के कीट पौधे की पत्तियों का रस चूसकर और लार्वा पत्तियों को खाकर नुक्सान पहुँचाते हैं. जिससे पौधे विकास करना बंद कर देते हैं.

रोकथाम – इस रोग की रोकथाम के लिए नीम की पत्ती, लहसुन, हरी मिर्च और गुड को 1:1:1:3 के अनुपात में लेकर उसमें आधा लीटर पानी मिलाकर तीन महीने के लिए रख दें. उसके बाद प्राप्त घोल की 10 मिलीलीटर मात्र को 15 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर 10 दिन के अंतराल में तीन बार छिडकाव करें.

बिटलबाईन बग

बिटलबाईन बग का रोग मुख्य रूप से पान की पत्तियों पर दिखाई देता है. इस रोग के कीट पतियों में छिद्र बना देते हैं. और शिराओं के बीच के उतक को खा जाते हैं. जिससे पत्तियों में सिकुडन आ जाती है. रोग बढ़ने पर सम्पूर्ण पौधा सूखकर नष्ट हो जाता है.

रोकथाम – इस रोग की रोकथाम के लिए के लिए पौधों पर एक लीटर तम्बाकू की जड़ों के घोल को 20 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर छिडकाव करना चाहिए.

फली छेदक

फली छेदक रोग का प्रभाव फली वाली फसलों पर ही देखने को मिलता है. इस रोग के कीट का लार्वा फलियों को अंदर से खाकर नष्ट कर देते हैं. जिसका सीधा असर फसल की पैदावार पर देखने को मिलता है.

रोकथाम – इस रोग की रोकथाम के लिए नीम के तेल या पंचगव्य का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.

माहू

माहू का रोग फसल के पकने के दौरान मौसम परिवर्तन के समय देखने को मिलता है. इस रोग के कीट पौधों के कोमल भागों का रस चूसकर पौधे के विकास को प्रभावित करते हैं. इस रोग के कीटों का आकार बहुत छोटा होता है. जो पौधे पर समूह में पाए जाते हैं.

रोकथाम – इसकी रोकथाम के लिए कई तरह के जैविक कीटनाशकों का किसान भाई इस्तेमाल कर सकते हैं.

  1. लगभग नीम की 5 किलो पत्तियों को ढाई लीटर पानी में मिलाकर एक रात तक भिगों दें. उसके बाद उस पानी को उबाकर ठंडा कर छान लें. इस तरह प्राप्त घोल को 50 से 60 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर छिडकाव करें.
  2. रोगग्रस्त पौधों पर नीम के तेल की 2 प्रतिशत मात्रा को पानी में मिलाकर छिडकाव करना अच्छा होता हैं.
  3. 1 किलो गोबर को 10 लीटर पानी में मिलकर उसे टाट के कपड़े से छानकर पौधों पर छिडकने से लाभ मिलता हैं.

कमलिया कीट

इस रोग का प्रभाव पौधों पर बारिश के बाद दिखाई देता है. इस रोग के कीट बारिश के बाद अपने लार्वा की जन्म देता हैं. जो पौधे की पत्तियों की खाकर उन्हें नुक्सान पहुँचाते हैं. इस रोग के लार्वा के पूरे शरीर पर काले बाल दिखाई देते हैं

रोकथाम – इस रोग की जैविक तरीके से रोकथाम के कई तरीके मौजूद हैं.

  1. 75 लीटर पानी में 15 मिलीलीटर नीम का तेल मिलाकर पौधों पर छिडकाव करना चाहिए.
  2. 5 लीटर मठे मे एक किलो नीम और धतूरे के पत्ते डालकर 10 दिन तक सडाने के बाद उसे पानी में मिलाकर पौधों पर 10 दिन के अंतराल में दो बार छिडकाव करें.
  3. 5 किलो नीम पत्तियों को तीन लीटर पानी में मिलाकर एक रात तक भिगों दें. उसके बाद उस पानी को इतना उबालें की मिश्रण आधा रहा जाएँ. और जब मिश्रण ठंडा हो जाएँ तब उसे छानकर अलग कर लें. इस तरह प्राप्त घोल को 150 से 160 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर छिडकाव करें.

हरे रंग की इल्ली

हरे रंग की इल्ली पौधे के कोमल भागों का रस चूसकर उनके विकास को प्रभावित करती है. फलस्वरूप पौधों पर लगने वाले फलों का आकार छोटा रहा जाता है. और पैदावार काफी कम प्राप्त होती हैं.

रोकथाम – इस रोग की रोकथाम के लिए 300 ग्राम हीराकासी, 250 ग्राम तम्बाकू, 50 ग्राम नींबू के रस को 2 लीटर पानी डालकर अच्छे से उबाल लें. उसके बाद प्राप्त मिश्रण की आधा लीटर मात्रा को 30 से 35 लीटर पानी में मिलकर पौधों पर छिड़क दें. इसके अलावा नीम के आर्क का छिडकाव भी किसान भाई पौधों पर कर सकते हैं. नीम का आर्क बनाने के लिए नीम की पत्तियों को 1:3 के अनुपात में पानी में मिलकर उबाल लें.

सब्जी फसलों में सामान्य कीट

सब्जी फसलों में वैसे तो कई कीट रोग पाए जाते हैं. लेकिन कुछ ऐसे कीट रोग होते हैं जो लगभग सभी फसलों में दिखाई देते हैं. जिनमें फल छेदक, सुंडी और कतरा जैसे रोग सामान्य रूप से दिखाई देते हैं. जो पौधों के फल और पत्तियों को खाकर काफी ज्यादा नुकसान पहुँचाते हैं.

रोकथाम – इन रोगों की रोकथाम के लिए 100 ग्राम तंबाकू, 100 ग्राम नमक, 20 ग्राम साबुन का घोल और 20 ग्राम बुझे हुए चुने को 5 लीटर पानी में मिलाकर पौधों पर सुबह के वक्त छिड़कना चाहिए. इसके अलावा नीम के तेल और शेम्पू को पानी में मिलाकर पौधों पर छिड़कने से लाभ मिलता हैं.

तो ये वो कुछ कीट रोग थे जो फसलों पर सामान्य रूप से दिखाई देते हैं. इन सभी कीटों को बिना रूपये खर्च किये जैविक तरीके से रोका या नष्ट किया जा सकता हैं. इनके अलावा अगर आप और भी किसी रोग के बारें में या उसके जैविक नियंत्रण के बारें में जानकारी चाहते हैं तो आप अपनी राय कमेंट बॉक्स में हमारे साथ साझा कर सकते हैं.

प्रेक्टिकल 12

किट नासक तथा कवक नासक घोलो को तेयार करना व उनका छिडकाव

विभिन्न रोगों व कीटों के नियंत्रण हेतु कुछ उपयोगी व सरल तरीके निम्नवत हैं

नीम की पत्तियां

एक एकड़  जमीन में छिड़काव के लिए 10-12 किलो पत्तियों का प्रयोग करें| इसका प्रयोग कवक जनित रोगों, सुंडी, माहू, इत्यादि हेतु अत्यंत लाभकारी होता है| 10 लीटर घोल बनाने के लिए 1 किलो पत्तियों को रात भर पानी में भिंगो दें| अगले दिन सुबह पत्तियों को अच्छी तरह कूट कर या पीस कर पानी में मिलकर पतले कपड़े से छान लें| शाम को छिड़काव से पहले इस रस में 10 ग्राम देसी साबुन घोल लें|

नीम की गिरी

नीम की गिरी का 20 लीटर घोल तैयार करने के लिए 1 किलो नीम के बीजों के छिलके उतारकर गिरी को अच्छी प्रकार से कूटें| ध्यान रहे कि इसका तेल न निकले| कुटी हुई गिरी को एक पतले कपड़े में बांधकर रातभर 20 लीटर पानी में भिंगो दें| अगले दिन इस पोटली को मसल-मसलकर निचोड़ दें व इस पानी को छान लें| इस पानी में 20 ग्राम देसी साबुन या 50ग्राम रीठे का घोल मिला दें| यह घोल दूध के समान सफेद होना चाहिए| इस घोल को कीट व फुफंद नाशक के रूप में प्रयोग किया जाता है|

नीम का तेल

नीम के तेल का 1 लीटर घोल बनाने के लिए 15 से 30 मि०ली० तेल को 1 लीटर पानी में अच्छी तरह घोलकर इसमें 1 ग्राम देसी साबुन या रीठे का घोल मिलाएं| एक एकड़ की फसल में 1 से 3 ली० तेल की आवश्यकता होती है| इस घोल का प्रयोग बनाने के तुरंत बाद करें वरना तेल अलग होकर सतह पर फैलने लगता है जिससे यह घोल प्रभावी नहीं होता | नीम के तेल की छिड़काव से गन्ने की फसल में तना बंधक व सीरस बंधक बीमारियों को नियंत्रित किया जा सकता है| इसके अतिरिक्त नीम के तेल कवक जनित रोगों में भी प्रभावी है|

नीम की खली कवक (फुफन्दी)

कवक (फुफन्दी) व मिट्टी जनित रोगों के लिए एक एकड़ खेत में 40 किलो नीम की खली को पानी व गौमूत्र में मिलाकर खेत की जुताई करने पहले डालें ताकि यह अच्छी तरह मिट्टी में मिल जाए|

नीम की खली का घोल

एक एकड़ की खड़ी फसल में 50 लीटर नीम की खली का घोल का छिड़काव करें| 150 लीटर घोल बनाने के लिए किलोग्राम नीम की खली को 50 लीटर पानी में एक पतले कपड़े में पोटली बनाकर रातभर के लिए भिगो दें| अगले दिन इसे मसलकर व छानकर 50 यह बहुत ही प्रभावकारी कीट व रोग नियंत्रक है|

डैकण (बकायन)

पहाड़ों में नीम की जगह डैकण को प्रयोग में ला सकते हैं| एक एकड़ के लिए डैकण की 5 से 6 किलोग्राम पत्तियों की आवश्यकता होती है| छिड़काव पत्तियों की दोनों सतहों पर करें|  नीम या डैकण पर आधारित कीटनाशकों का प्रयोग हमेशा सूर्यास्त के बाद करना चाहिए क्योंकि सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों के कारण इसके तत्व नष्ट होने का खतरा होता है| साथ ही शत्रु कीट भी शाम को ही निकलते हैं जिससे इनको नष्ट किया जा सकता है| डैकण के तेल, पत्तियों, गिरी व खल के प्रयोग व छिड़काव की विधि भी नीम की तरह है|

करंज (पोंगम)

करंज फलीदार पेड़ है जो मैदानी इलाकों में पाया जाता है| इसके बीजों से तेल मिलता है जो कि रौशनी के लिए जलाने के काम भी आता है| इसकी खल को खाद व पत्तियों को हरी खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है| इसका घोल बनाने के लिए पत्तियां, गिरी, खल व तेल का प्रयोग करते हैं| यह खाने में विशाक्त व उपयोगी कीट प्रतिरोधक व फुफंदी नाशक है| करंज के तेल, पत्तियों, गिरी व खल का घोल बनाने के लिए मात्रा व छिड़काव की विधि भी नीम तरह ही है|

गोमूत्र

गोमूत्र कीटनाशक के साथ-साथ पोटाश व नाइट्रोजन का प्रमुख स्रोत भी है| इसका ज्यादातर प्रयोग फल, सब्जी तथा बेलवाली फसलों को कीड़ों व बीमारियों से बचाने के लिए किया जाता है| गोमूत्र को 5 से 10 गुना पानी के साथ मिलाकर छिड़कने से माहू, सैनिक कीट व शत्रु कीट मर जाते हैं|

लहसुन

मिर्च, प्याज आदि की पौध में लगने वाले कीड़ों की रोकथाम के लिए लहसुन का प्रयोग किया जाता है| इसके लिए 1 किलो लहसुन तथा 100 ग्राम देसी साबुन को कूटकर 5 ली० पानी के साथ मिला देतें हैं व फिर पानी को छानकर इसका छिड़काव करते है|

चुलू व सरसों  की खली

यह बहुत ही प्रभावकारी फुफन्दी नियंत्रक है हेतु एक एकड़ में 40 किलो चुलू व सरसों की खली को बुवाई से पहले खेतों में डालें|

खट्टा मठठा

यह बहुत ही प्रभावकारी फुफन्द नियंत्रक है| एक सप्ताह पुराने 2 लीटर खट्टे मट्ठे का 30 लीटर पानी में घोल कर इसका खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिए| एक एकड़ खेत में 6 लीटर खट्टा मट्ठा पर्याप्त होता है|

तम्बाकू व नमक

सब्जियों की फसल में किसी भी कीट व रोग की रोकथाम के लिए 100 ग्राम तबाकू व 100 ग्राम नमक को 5 ली० पानी में मिलाकर छिड़कें| इसको और प्रभावी बनाने के लिए 20 ग्राम साबुन का घोल तथा 20 ग्राम बुझा चूना मिलाएँ|

शरीफा तथा पपीता

शरीफा व पपीता प्रभाव कीट व रोगनाशक हैं| यह सुंडी को बढ़ने नहीं देते| इसके एक किलोग्राम बीज या तीन किलोग्राम पत्तियों व फलों के चूर्ण को 20 ली० पानी में मिलाएँ व छानकर छिड़क दें|

मिट्टी का तेल

रागी (कोदा) व झंगोरा (सांवा) की फसल पर जमीन में लगने वाले कीड़ों के लिए मिट्टी के तेल में भूसा मिलाकर बारिश से पहले या तुरंत बाद जमीन में इसका छिड़काव  करें| इससे सभी कीड़े मर जाते हैं| धान की फसल में सिंचाई के स्रोत पर 2 ली० प्रति एकड़ की दर से मिट्टी का तेल डालने से भी कीड़े मर जाते हैं|

बीमार पौधे व बाली

बीमार पौधे की रोगी बाली को सावधानी से तुरंत निकाल दें साथ ही रोगी पौधे को उखाड़कर जला दें| इससे फसल में फुफन्दी, वाइरस व बैक्टीरिया जनित रोगों को पूरे खेत में फैलने से रोका जा सकता है|

जैविक घोल

परम्परागत जैविक घोल के लिए डैकण व अखरोट की दो-दो किलो सुखी पत्तियाँ, चिरैता के एक एक किलो, टेमरू व कड़वी की आधा-आधा किली पत्तियों को 50 ग्राम देसी साबुन के साथ कूटकर पाउडर बनाएँ| जैविक घोल तैयार करें| इसमें जब खूब झाग आने लगे तो घोल प्रयोग के लिए तैयार हो जाता है| बुवाई के समय से पहले व हल से पूर्व इस घोल को छिड़कने से मिट्टी जनित रोग व कीट नियंत्रण में मदद मिलती है| छिड़काव के तुरंत बाद खेत में हल लगाएँ| एक एकड़ खेत के लिए 200 ली० घोल पर्याप्त है|

पंचगव्य

पंचगव्य बनाने के लिए 100 ग्राम गाय का घी, 1 ली० गौमूत्र, 1 ली० दूध, तथा 1 किलो ग्राम गोबर व 100 ग्राम शीरा या शहद को मिलाकर मौसम के अनुसार चार दिन से एक सप्ताह तक रखें| इसे बीच-बीच में हिलाते रहें| उसके बाद इसे छानकर 1:10 के अनुपात में पानी के साथ मिलकर छिड़कें| पंचगव्य से सामान्य कीट व बीमारियों पर नियत्रण के साथ-साथ फसल को आवश्यक पोषक तत्व भी उपलब्ध होते हैं|

गाय के गोबर का घोल

गाय के गोबर का सार बनाने के लिए 1 किलो गोबर को 10 ली० पानी के साथ मिलाकर टाट के कपड़े से छानें| यह पत्तियों पर लगने वाले माहू, सैनिक कीट आदि हेतु प्रभावी है|

दीमक की रोकथाम

गन्ने में दीमक रोकथाम के लिए गोबर की खाद में आडू या नीम के पत्ते मिलाकर खेत में उनके लड्डू बनाकर रखें| बुबाई के समय एक एकड़ खेत में 40 किलो नीम की खल डालें| नागफनी की पत्तियाँ 10 किलो, लहसुन 2 किलो, नीम के पत्ते 2 किलो को अलग-अलग पीसकर 20 लीटर पानी में उबाल लें| ठंडा होने पर उसमें 2 लीटर मिट्टी का तेल मिलाकर 2 एकड़ जमीन में डालें| इसे खेत में सिंचाई के समय डाल सकते हैं|

चूहों का नियंत्रण

कच्चे अखरोट के छिलके निकालकर उन्हें बारीक पीसकर चटनी बना लें| इस चटनी के साथ आटे की छोटी-छोटी गोलियों को फसल के बीच-बीच व चूहे के बिलों में रखें| चूहे यह गोलियाँ खाने से मर जाते हैं| इसके अतिरिक्त देसी पपीते के छिलके या घोड़े या खच्चर की लीद को चूहों के बिलों के पास व खेतों में डालने से चूहे भाग जाते हैं या मर जाते हैं|

जैविक बाड़

कीटों व रोगों पर नियंत्रण हेतु खेतों में औषधीय पौधों की बाढ़ भी कारगर साबित होती है| धान के खेत में मेंढ़ में बीच-बीच में मडुवा या गेंदा लगाने से कीड़े दूर भागते हैं तथा रोग भी कम लगते हैं| खेतों की मेढ़ों पर गेंदें के फूल व तुलसी के पौधों अथवा डैकण के पेड़, तेमरू, निर्गुण्डी (सिरोली, सिवांली), नीम, चिरैता व कड़वी की झाड़ियों की बाड़ लगाएँ| खेतों में लगे पेड़ों को काटकर व जलाकर नष्ट न करें यह कीटनाशी  के रूप में व जानवरों से हमारी फसल की रक्षा करते 

प्रेक्टिकल 13

पादप सुरक्षा उपकरणों का प्रयोग व रखरखाव

उदेश्य = पादप सुरक्षा के उपकरणों के प्रयोग तथा सुरक्षा की विधियों को सीखना

आवश्यक सामग्री = विभिन्न प्रकार के छिडकाव उपकरणों बोलो ,नेपसेक, गेटर ,एचटी पाउडर ,आदि

विधि = पम्प का प्रयोग करने से किए जाने वाले कार्य

prektical 14

फसल की उतपादन लागत

प्रेक्टिकल 15

पोधसाला संबंधी कार्यो का अभ्यास

प्रेक्टिकल 16

पोध प्रवर्धन संबंधी कार्यों का अभ्यास

प्रेक्टिकल 17

ग्रीनहाउस संभंधि कार्यों का अभ्यास

हरितगृह या ग्रीनहाउस (ग्लासहाउस भी कहा जाता है) एक इमारत है, जहां पौधे उगाये जाते हैं। … हालांकि, प्रवाह के कारण उष्मा का कुछ नुकसान होता है, लेकिन इससे ग्रीन हाउस के अंदर ऊर्जा (और इस तरह तापमान) में विशुद्ध वृद्धि होती है। गर्म आंतरिक सतहों के ताप से गरम हुई हवा को छत और दीवार द्वारा ईमारत के अन्दर बरकरार रखा जाता है।

ग्रीनहाउस के लिए इस्तेमाल किया कांच हवा के प्रवाह के लिए एक बाधा के रूप में काम करता है और इसका प्रभाव ग्रीनहाउस के भीतर ऊर्जा को बांधकर रखने के रूप में पड़ता है, जो पौधों और इसके अंदर की जमीन दोनों को गर्म करता है। यह जमीन के पास की हवा को गर्म करता है और इस हवा को उपर उठने और बहकर दूर चले जाने से रोका जाता है। एक ग्रीनहाउस की छत के पास एक छोटी सी खिड़की खोलकर इसका प्रदर्शन किया जा सकता है: क्योंकि तापमान उल्लेखनीय रूप से काफी नीचे आ जाता है। यह सिद्धांत ठंडा करने की ऑटोवेंट स्वचालित प्रणाली पर आधारित है। एक अति लघु ग्रीनहाउस एक ठंडे फ्रेम के रूप में जाना

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